Wednesday, 2 July 2025
Brahm Brahm Kabira fire udaas
Kabir aur janae nahin, Ik Ram naam ki aas
Tuesday, 1 July 2025
Om te kaya bani, Soham te mann hoye
Om te kaya bani
Soham te mann hoye
Om Soham se pare
Bhooje birla koe
ओऽहंग से काया बनी । सोऽहंग से मन होय । ओऽहम सोऽहम से परे । बूझे बिरला कोय ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो,
जपो सोहंग सोहंग।
होत आनन्द आनन्द भजन में ।
बरसात शबद अमी की बङेर । भीजत है कोई सन्त।
अगर वास जहाँ तत्व की नदियाँ । मानों अठारह गंग ।
कर अस्नान मगन होय बैठे । चढ़त शबद के रंग ।
पियत सुधारस लेत नाम रस । चुवत अगर के बूँद ।
रोम रोम सब अमृत भीजे । परस परसत अंग ।
स्वांसा सार रचे मोरे साहिब । जहाँ न माया मोहंग ।
कहें कबीर सुनो भाई साधो । जपो सोहंग सोहंग ।
साखी नाम नरायन । जगत गुरु करे बोध संसार ।
वचन प्रताप से उबरे । भवजल में कङिहार ।
कबीर साहब के इस भजन को भेजा है । हमारे शिष्य निर्मल बंसल ने । जिन लोगों ने किसी सच्चे आत्म ज्ञानी सन्त या सदगुरु से नाम दान ( उपदेश या नाम दीक्षा या हँस दीक्षा ) नहीं लिया है । वे इस भजन का आनन्द
और गू्ढ अर्थ कभी नहीं समझ सकते । यहाँ एक और खास बात है । जिन्होंने हँस दीक्षा का ये नाम या महा मंत्र - सोहंग..कहीं से ले रखा है । और सालों नाम कमाई भजन अभ्यास के बाद उन्हें इस भजन में वर्णित आनन्द प्राप्त नहीं हुआ । तो ये सबसे बङी पहचान है कि - उन्होंने सच्चे सतगुरु से नामदान लिया ही नहीं । मेरा मानना । या कहिये अनुभव है । कम से कम 3 और अधिक से अधिक 6 महीने में आपको इस भजन में वर्णित आनन्द अनुभव होना चाहिये । बशर्ते आपने भजन अभ्यास ठीक से किया हो । और अपनी कमियों को लगातार दूर करते हुये किसी सच्चे और अनुभवी मार्गदर्शक से सलाह ली हो । गुरु में समर्पण । उनसे बातचीत विनय प्रार्थना । और मौका मिलते ही यथासंभव उनके दर्शन से यह स्थिति बहुत जल्दी प्राप्त होती है । क्योंकि ये आपके प्रयास से नहीं । गुरु कृपा के आशीर्वाद से प्राप्त होती है - यह गुन साधन से नहीं होई । तुम्हरी कृपा पाये कोई कोई ।
आईये भजन का गूढ अर्थ जानते हैं । होत आनन्द आनन्द भजन में । भजन का सही अर्थ है । जब मन का भागना बन्द हो जाये । मन ठहर जाये । कहा है - मन की तरंग मार लो । बस हो गया भजन । आप मन को योग के बिना किसी युक्ति से नहीं ठहरा सकते ।
शरीर का निर्माण ओहम ॐ से हुआ है ।
मन का निर्माण - सोहंग से हुआ है ।
सोहंग जप की निरंतर रगङ से यह मन मर जाता है । काबू हो जाता है । या कहिये ठहर जाता है । बरसात शबद अमी की बङेर । भीजत है कोई सन्त । इस शब्द ( निर्वाणी धुन रूप सोहंग या फ़िर ऊपर की मंजिलों में प्रकट हुआ झींगुर की ध्वनि जैसा शब्द ) ध्वनि को निरंतर सुनने से अमृत ( अमी ) की बरसात होती है । इसमें ऐसा अनुभव होता है । जैसे पूरे शरीर तन मन दिलो दिमाग में मधुर आनन्ददायी शीतलता छा गयी हो । एक अजीव अवर्णनीय आनन्द से तन मन झूम उठता है । यह सिर्फ़ कोई कविता नहीं लिखी है । गहन ध्यान के अभ्यासी को बिना पानी के ही ऐसी अदभुत बरसात का आनन्द अनुभव होता है । भीजत है कोई सन्त । इसका आनन्द सन्त होने पर ही प्राप्त होता है । साधारण जीवों को कभी नहीं । सन्त से यहाँ मतलब है । सतनाम दीक्षा प्राप्त । परमात्मा या साहेब के भक्त । न कि झोली झोला वाले दाङी वाले भिखारी छाप बाबा ।
अगर वास जहाँ ( चन्दन की सुगन्ध ) तत्व की नदियाँ । मानों अठारह गंग की तरह बह रही हैं । कहने का अर्थ - ध्यान में आपको दिव्य सुगन्धों का स्पष्ट आनन्द आता है । आप जो सांसारिक चन्दन की सुगन्ध जानते हैं । यह उससे बहुत अलग है । भजन अभ्यास में कई तरह की सुगन्ध की अनुभूति होती है । यहाँ तक कि परफ़्यूम के इस्तेमाल की भांति बाद में भी आपके वस्त्रों से आती रहती है ।
कर अस्नान मगन होय बैठे । चढत शबद के रंग । सीधी सी बात है । इस आसमानी शबद के रंग में रंगते हुये इस स्नान द्वारा कौन ऐसा है । जो मगन नहीं हो जायेगा ? ऐसा कोई मूर्ख ही होगा ।
पियत सुधा रस लेत नाम रस । चुवत अगर के बूँद । नाम रसायन के साथ सुधा यानी अमृत रस का आनन्द लेते हुये चन्दन ( अगर ) की बौछारों का स्नान । रोम रोम सब अमृत भीजे । परस परसत अंग । शरीर का रोम रोम मानों नहीं बल्कि वास्तव में अमृत से भीग उठता है - सतगुरु हमसे रीझ कर कहया एक प्रसंग । बरस्या बादल प्रेम का भीज गया सब अंग । इस शब्द का स्पर्श ( परस ) होते ही ।
स्वांसा सार रचे मोरे साहिब । जहाँ न माया मोहंग । ये सार आनन्द परमात्मा ( साहेब ) ने कहाँ रचा है ? स्वांस में । सारा रहस्य छुपा है - स्वांस में । सिर्फ़ यह ही एकमात्र वो जगह ( शरीर में ) है । जहाँ माया मोह नहीं है । माया मोह ( माया महा माया आदि प्रेरित ) कहाँ से होगा । जब माया का हसबैंड ही स्वांस जाप से काबू में हो जाता है । उसकी नकेल ही हाथ में आ जाती है ।
कहें कबीर सुनो भाई साधो । जपो सोहंग सोहंग । यहाँ 1 खास बात कहना चाहूँगा । आप हिन्दू । मुसलमान । सिख । ईसाई । अंग्रेज । दुनियाँ के किसी भी जाति धर्म देश आदि से कुछ भी हों । 4 सेकेंड में पूरी होने वाली 1 स्वांस - सो ( अन्दर जाना = 2 सेकेंड ) हंग ( बाहर आना = 2 सेकेंड ) लेकर देखिये । यही अजपा जप संसार के प्रत्येक मनुष्य के अन्दर स्वयं हो रहा है । और इसी में सभी रहस्य । अमरता । जीवन सार । अलौकिक ज्ञान । मोक्ष आदि सब कुछ है । बाकी तो आप कूङा ही बटोर रहे हो । इसलिये कबीर साहब कह रहे हैं - जपो सोहंग सोहंग । मतलब इसी स्वांस पर पूरा ध्यान लगा दो । यही साखी ( साक्षी ) नाम ( निर्वाणी नाम या शब्द ) जगत में भगवान से मिलाने वाला है । गुरु करे बोध संसार । ( सच्चे ) गुरु ( ही ) इसका बोध कराते हैं । इस नाम को परमात्मा के वचन का प्रताप है । भवजल में कङिहार । इस संसार सागर में कङिहार या बन्दी छोर गुरु द्वारा । साहेब ।सोऽहम सोहंग या हंऽसो ?
आपके द्वारा सराहनीय लेख, मैं ये जानना चाहता हूँ कि - सोऽहं, सोहंग और हंसो में से कौन सा मन्त्र ठीक है, उचित है । बहुत से गुरु कहते हैं कि - सोऽहं शब्द प्राकृतिक और आध्यात्मिक है । जबकि आप और रविदास जी के शिष्य या अनुयायी कहते हैं कि - सोहंग ही ठीक, सच्चा और प्राकृतिक है । कृपया विस्तार से बताएं ।
सोहम या सोहंग या हँसो - वास्तव में सही शब्द (या भाव या क्रिया या धुन) सोऽहंग ही है लेकिन मजे की बात यह है कि यह बहुत ही रहस्यपूर्ण है और अदभुत भी है । एक तरह से पूरा खेल ही इसी से हो रहा है । सोऽहंग वृति से ही मन का निर्माण हुआ है । आत्मा में जब विचार स्थिति बनती है । और ‘अहम’ स्वरूप का आकार बनता है । तब वह कहता है - सोऽहंग । जिसको सरलता से समझाने के लिये शास्त्रों में कहा गया है - सोऽहम । वही मैं हूँ । या स्वयँ ।
यहाँ विचार करने योग्य बात है कि - जब वही है और वह है ही । तब ये कहने की कोई आवश्यकता ही नहीं कि - वही मैं हूँ । सोऽहंग । इसलिये जब यह आत्मा शान्त मौन निर्विचार स्थिति में होता है । तब यह पूर्ण मुक्त और (जिसे कहते हैं) परमात्मा ही है लेकिन जैसे ही यह कोई मनः सृष्टि करता है । ये सोहं वृति हो जाता है । सोऽहंग ॐ (ओऽहंग) से बङी स्थिति है और बहुत ऊँची स्थिति भी है । भले ही यह काल के दायरे में आती है ।
ओऽहंग से काया बनी । सोऽहंग से मन होय ।
ओऽहम सोऽहम से परे । बूझे बिरला कोय ।
आत्मा ने पहले मन (अंतःकरण) का निर्माण किया । ये ही सूक्ष्म शरीर है । इसका स्थूल आवरण ॐ बाह्य स्थूल शरीर है । सोऽहंग से बना ये मन सोऽहंग (के निर्वाणी जाप) से ही खत्म हो जाता है । तब मन माया से परे का सच दिखता है ।
इसलिये कहा है -
सोऽहंग सोऽहंग जपना छोङ । मनुआ सुरत शब्द से जोङ ।
अब क्योंकि सोऽहं सोऽहम या सोऽहंग शब्द प्रचलन में आ गये हैं । इसलिये इनको एक तरह से मान्यता सी मिल गयी है । जैसा तमाम अन्य शब्दों के साथ होता है । जिनका कोई भाषाई वजूद नहीं होता । पर वे धङल्ले से बोलचाल की अशुद्धता या स्पष्टता या स्थानीय लहजे से प्रचलित हो जाते हैं । वही मूल सोऽहंग के साथ हुआ है ।
लेकिन ये बङा सरल है कि कुछ ही देर में इसका स्वतः सरल परीक्षण हो सकता है । विश्व का कोई भी किसी जाति धर्म का व्यक्ति गहरी सांस लेता हुआ प्रति 4 सेकेंड में प्रथम 2 सोऽऽ और अगले 2 सेकेंड हंऽऽग सुनता हुआ आराम से परीक्षण कर सकता है । जो सांस या दमा के रोगी होते हैं । उनकी तेज स्वांस में तो ये साफ़ साफ़ बहुत तेज और स्पष्ट सुनायी देता है ।
लेकिन ध्यान रहे । ये निर्वाणी है और मुँह से कभी - सोंऽहग सोऽहंग नहीं जपा जाता । जैसा कि मैंने एक धार्मिक TV कार्यकृम में (शायद जैन प्रचारक साध्वी द्वारा) इतनी जोर से कहते सुना । जैसे साइकिल में पम्प से हवा डाली जा रही हो ।
इसको अजपा कहा जाता है । जिसका मतलब ही यह है कि ये स्वयं हो रहा है । इसको जपना नहीं है । सिर्फ़ इस पर ध्यान देना है । लेकिन बिना सच्ची दीक्षा प्राप्त व्यक्ति को इसके ध्यान से कोई फ़ायदा नहीं होगा । क्योंकि इसको जागृत किया जाता है । वह समय के सच्चे (गुरु या) सदगुरु द्वारा ही संभव है ।
लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है । आप अभिमानी किस्म के हैं । गुरु का आपकी नजर में कोई महत्व नहीं है और आप निगुरा ही ध्यान करते हैं । तब यही (यदि क्रोधित हो जाये) हठयोग कहलाता है । जिसके दो ही परिणाम मैंने अब तक देखें है - गम्भीर किस्म का पागलपन और फ़िर मौत ।
संयोग की बात है । मैं स्वयं कट्टर हठयोगी रहा और इन दोनों परिणामों से (6 महीने तक) गुजरा हूँ ।
स्वांस में होता ये धुनात्मक नाम ही हमारा असली नाम है और सिर्फ़ इसी से हम वापस अपने उस घर (सचखण्ड या सतलोक) तक पहुँच सकते हैं । जहाँ से जन्म जन्म से बिछु्ङे हुये हैं । एक तरह से जिस तरह पहले राजा और अन्य लोग अपने छोटे बच्चे के गले में नाम पता परिचय का लाकेट पहनाते थे । ये परमात्मा ने सभी मनुष्यों के गले में डाला हुआ है ।
आज meditation जिसको लोग पढे लिखों की भाषा में breathing कहते हैं । उससे जो शान्ति सकून सा महसूस करते हैं । उसका मुख्य कारण यही है कि आप तब अपने में क्षणिक रूप से स्थित हो जाते हैं और ये हर कोई जानता है । आप लंदन पेरिस कहीं भी घूम आओ । असली शान्ति सुख अपने घर आकर ही मिलता है । पशु पक्षी भी आखिर शाम को अपने घरोंदे में लौटते हैं ।
और भी कई उदाहरण सोऽहंग को सिद्ध करते हैं । बुद्ध को जब बहुत दिन तक ज्ञान नहीं हुआ और वे चिल्ला ही उठे - अब क्या करूँ..ज्ञान के लिये मर जाऊँ क्या ?
तब आकाशवाणी (वास्तव में अंतरवाणी) हुयी - हे साधक ! अपने शरीर के माध्यम पर ध्यान कर । बुद्ध सोचने लगे कि शरीर का माध्यम क्या है ?
क्योंकि बुद्ध बुद्धिमान थे । अतः बहुत जल्द समझ गये । शरीर का माध्यम सिर्फ़ स्वांस ही है । क्योंकि इसके होने से ही शरीर की सत्ता कायम है । फ़िर वे भी meditation करने लगे । आप स्वयं देखो - नाम, काम, दाम, राम, चाम आदि आदि कोई भी क्रिया (जिससे भी आप उस समय जुङे हों) हो । स्वांस में ही लयात्मक बदलाव होगा । बहुत आसान प्रयोग है ।पर ये हंऽसो क्या है ?
ये 5 तत्वों से बना 5 फ़ुट 5 इंच का शरीर बङा कमाल का है । सोऽहंग यानी मन ऐसी हार्ड डिस्क है । जो दोनों तल (surface) पर काम करता है । यही बात शरीर की भी है । सोऽहंग यानी जीव अवस्था । जो किसी भी सामान्य मनुष्य की है ही । उसमें कुछ भी जोङना घटाना नहीं है । वह तो पहले से ही है । इसमें मन रूपी ये सपाट प्लेट नीचे की तरफ़ (सिर से पैरों की तरफ़) क्रियाशील होती है और शरीर के चक्रों में स्थित सभी कमल भी नीचे की तरफ़ (सिर से पैरों की तरफ़) और बन्द अवस्था में होते हैं । कुण्डलिनी भी जो सर्पिणी आकार की है और कूल्हे रीढ के जोङ के पास सुप्त अवस्था में नीचे को मुँह घुसाये बैठी है । मुख्य स्थितियों के साथ ये जीव और सोऽहंग स्थिति है ।
अब क्योंकि मन रूपी प्लेट पर 8 खाने बने हुये हैं । जिनके भाव और कार्य इस प्रकार के हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद (घमण्ड) मत्सर (जलन या ईर्ष्या) ज्ञान, वैराग ।
इनमें पूर्व के 6 से आप परिचित हैं हीं । ज्ञान वैराग का खुलासा मैं कर देता हूँ । इन पूर्व 6 भावों से ऊब कर जब कोई शान्ति चाहता है । उसे वैराग स्थिति कहते हैं । तब यह ज्ञान की तलाश में भागता है और अपनी स्थिति भाव अनुसार ज्ञान यात्रा करता है । क्योंकि चक्रों के कमल बन्द हैं । इसलिये दिव्यता का कोई अनुभव नहीं होता । क्योंकि कुण्डलिनी सोई है । इसलिये अल्प (जीव) शक्ति ही खुद में पाते हैं ।
लेकिन जैसे ही कोई सच्चा (गुरु या) सदगुरु आपके स्वांस में गूँजते इस नाम को जागृत कर देता है । प्रकाशित कर देता है । तब ये तीनों ही बदल कर क्रियाशील हो उठते हैं । सोऽहंग मन पलट कर हँऽसो हो जाता है । जन्म जन्म से सोई सर्पिणी कुण्डलिनी जाग उठती है । शरीर चक्रों के कमल सीधे होकर ऊपर की तरफ़ (पैरों से सिर की तरफ़) मुँह करके खिल जाते हैं ।
अब पहले मन की बात करें । इसके सभी 8 भाव विपरीत होकर दया, क्षमा, प्रेम, भक्ति, आदि आदि काम, क्रोध से विपरीत होकर सदगुणों में खुद बदल जाते हैं । कुण्डलिनी दिव्य शक्ति का संचार करती है और चक्र कमल खुलने से वहाँ की दिव्यता प्रकाश और अन्य दिव्य लाभ साधक को होने लगते हैं ।
इसलिये सामान्य अवस्था (बिना हँसदीक्षा) में इस सोऽहंग जीव को काग वृति (कौआ स्वभाव) कहा गया है । यह मलिन वासनाओं में सुख पाता है । हँऽसों की तुलना में विष्ठा इसका भोजन है । लेकिन हँसदीक्षा होने पर यह सत्य को जानने लगता है और अमीरस (अमृत) इसका भोजन है । तब यह सार सार को गहता हुआ सुख पाता हुआ कृमशः (साधक की स्थिति अनुसार) पारबृह्म की ओर उङता है और अपनी मेहनत लगन भक्ति अनुसार सचखण्ड पहुँचकर भक्ति अनुसार स्थान प्राप्त करता है । यही हँऽसो स्थिति है । साहेब ।दीक्षाएं
जब कोई जिज्ञासु हमारे किसी साधक या वैब साइट के माध्यम से इस संस्था के संपर्क में आता है तो साधकों अथवा वैब साइट से उसको परमपिता परमेश्वर की प्राप्ति के मार्ग का एक सामान्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है । इसके बाद यदि वह आश्रम में जाकर संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज से किसी भी प्रकार के आध्यात्मिक प्रश्न करना चाहता है तो गुरुदेव जिज्ञासु के हर प्रश्न का उत्तर बड़े ही विनम्र भाव से देकर उसको संतुष्ट करते हैं । यदि जिज्ञासु पूर्ण रूप से संतुष्ट हो जाता है और वह दीक्षा का आग्रह करता है तो गुरुदेव दीक्षा से एक दिन पूर्व जिज्ञासु को आंतरिक गूढ रहस्यों से अवगत कराते हैं और अगले दिन दीक्षा प्रदान करते हैं । जो जिज्ञासु विभिन्न मत मतांतरों से से दीक्षा प्राप्त कर ध्यान अभ्यास कर रहे होते हैं संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज उनको हंस दीक्षा ( ब्रह्म दीक्षा ) तथा समाधि दीक्षा दोनों का ज्ञान प्रदान कर देते हैं । और इस ज्ञान के बारे में संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज दीक्षा देते समय यह भी समझते हैं कि कोई पूर्ण गुरु ही इस ज्ञान को प्रदान करने का अधिकारी होता है और वह गुरु भी ऐसा हो कि
बंधे को बंधा मिला, छूटै कौन उपाय ।
कर सेवा निर्बंध की, पल में लेत छुड़ाय ॥
सतगुरु मेरा शूरमा, कसकर मारा बाण ।
नाम अकेला रह गया, पाया पद निर्वाण ॥
दीक्षा के विभिन्न प्रकार1) हंस दीक्षा ( ब्रह्म दीक्षा )
संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज स्नान आदि से निवृत्त होकर जिज्ञासुओं को सुबह 08:00 बजे से 12:00 बजे के बीच दीक्षा प्रदान करते हैं । हंस दीक्षा में संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज शिष्य को ब्रह्म ज्ञान कराते हैं तथा साधक को एक विशेष प्रकार का प्रभु सिमरण का ज्ञान प्रदान कराते हैं । जिससे साधक सदैव परमपिता परमेश्वर का स्मरण बिना किसी मंत्र के जाप के करता रहता है ।
इसके अतिरिक्त इस दीक्षा में शरीर के विभिन्न चक्रों को जाग्रत कर दिया जाता है । साधक इस दीक्षा द्वारा प्राप्त ज्ञान के आधार पर ध्यान अभ्यास कर अपने आज्ञा चक्र पर विभिन्न लोक लोकांतर देखने लगता है अर्थात तीसरा दिव्य नेत्र खुल जाता है । इस दीक्षा द्वारा बताए ध्यान अभ्यास तथा गुरु कृपा से साधक प्रेम तथा समर्पण के साथ भक्ति करते करते कुछ ही समय में ब्रह्मांड की चोटी तक पहुँच जाता है, इसके उपरांत ब्रह्मांड की चोटी से परमपिता परमेश्वर में विलीन होने का रास्ता “परमहंस दीक्षा” के माध्यम से पूरा कराया जाता है । संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज “कान में कर दी कुर्र, तुम चेला हम गुर्र” परंपरा का विरोध करते हैं । इस दीक्षा में साधक को किसी भी प्रकार के मंत्र आदि के जाप करने के लिए नही कहा जाता है यह निरवानी मार्ग है । इस संसार में धार्मिक ग्रन्थों/पाण्डुलिपियों में करोड़ों नाम उपलब्ध हैं जिन्हे जीभ से उच्चारित किया जा सकता है। लेकिन इनमें से किसी भी शब्द में आत्मा को जन्म मृत्यु के सागर से स्थायी तौर पर मुक्त कराने की ताकत नहीं है। जबकि सद्गुरु कबीर जी जिस सार नाम की बात करते हैं वह रहस्यमय है तथा किसी भी धर्मग्रंथ या पाण्डुलिपि में नहीं है। यह सार नाम किसी विरले व्यक्ति को ही प्राप्त हो पाता है। इस संबंध में कबीर साहिब ने भी लिखा है कि –
कोटि नाम संसार में, तीनते मुक्ति न होए।
मूल नाम ये गुप्त है, जाने विरला कोई॥
पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रा सो निश्चय कर जाना ।
आगे पुरुष पुराण नि:अक्षर तिनकी खबर न जाना ॥
नौ नाथ चौरासी सिद्ध लो पाँच शब्द में अटके ।
मुद्रा साध रहे घाट भीतर फिर औंधे मुँह लटके ॥
पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रा लोक द्वीप यमजाला ।
कहै कबीर अक्षर के आगे नि:अक्षर उजियाला ॥
अर्थात इस दुनिया का कोई भी मंत्र परमपिता परमेश्वर को पाने के लिए सक्षम नही है । संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज अक्सर फरमाते हैं कि मृत्यु के समय तो कंठ कार्य करना बंद कर देता है तो उस समय किसी भी मंत्र का जाप किस प्रकार किया जा सकेगा । ऐसी स्थिति में तो काल निरंजन के गाल में ही जाना पड़ेगा ।2) समाधि दीक्षा
जैसा कि कबीर साहिब ने कहा है कि "संतो सहज समाधि भली", इसी प्रकार संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज भी साधकों को समाधि अवस्था में पहुँचने के लिए अत्यंत सरल तथा सहज मार्ग बताते हैं । इस अभ्यास को बच्चा, बूढ़ा, जवान, बीमार सभी बड़ी आसानी से कर सकते हैं । हंस दीक्षा के माध्यम से शिव नेत्र सक्रिय हो जाता है लेकिन समाधि ही एक ऐसा दर्पण है जिसमें साधक को अपनी आध्यात्मिक उन्नति का सही सही ज्ञान हो पाता है कि वह अंतरीय मार्ग में किस चरण तक पहुँच चुका है । समाधि में साधक सूक्ष्म शरीर, कारण शरीर तथा महाकारण शरीर के माध्यम से दिव्य लोकों में गमन करता है तथा विभिन्न लोक लोकांतरों के दर्शन करता हुआ आध्यात्मिक मार्ग पर अग्रसर होता है । समाधि अभ्यास में किसी प्रकार के कठिन आसन अथवा परिश्रम की आवश्यकता नहीं होती है, बस होता है केवल समर्पण और प्रेमपूर्वक बह जाना उस परमपिता परमेश्वर की गोद में । समाधि अवस्था में साधक का शरीर निष्क्रिय हो जाता है । समाधि उपरांत साधक का शरीर कुछ ही पलों में वापस सामान्य सक्रिय हो जाता है । समाधि के उपरांत साधक को बेहद ताजगी तथा हलकापन भी अनुभव होता है । समाधि की यह प्रक्रिया ध्यान की पाँच मुद्राओं अर्थात चाचरी, भूचरी, अगोचरी, उन्मुखी और खेचरी से ऊपर की अवस्था है । समाधि क्रिया में किसी भी प्रकार का कोई खतरा नहीं होता है । इस अभ्यास से कुंडलनी जाग्रत हो जाती है तथा शरीर के सभी चक्र जैसे मूलाधार चक्र, इंद्री चक्र, नाभि चक्र, हृदय चक्र, कंठ चक्र, आज्ञा चक्र, सहस्र चक्र सक्रिय हो जाते हैं । साधक त्रिकालदर्शी हो जाता है तथा सिद्धियों तथा रिद्धियों को प्राप्त कर लेता है लेकिन संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज अपने साधको किसी भी प्रकार की सिद्धियों तथा रिद्धियों के प्रयोग की अनुमति नहीं प्रदान करते हैं क्योंकि इससे आध्यात्मिक उन्नति में रुकावट आ जाती है ।
स्वत: सहज वह शब्द है, सार शब्द कह सोय ॥
सब शब्दों में शब्द है, सबका कारण सोय ॥
प्रकृति पार वह शब्द है, आगम अचिंत अपार ॥
अनुभव सहज समाधि में, आज गुरु चरण अधार ॥
समाधि में साधक की आत्मा को अंतरीय मंडलों में यात्रा करने के लिए इस भौतिक शरीर की आवश्यकता नहीं होती है । वह सूक्ष्म शरीर के माध्यम से ही यह यात्रा करता है । इसके बारे में तुलसीदास जी ने कहा है –
पग बिन चले सुने बिन काना ।
कर बिन कर्म करे विधि नाना ॥
रसना बिन सकल रस भोगी ।
वाणी बिन वक्ता बाद योगी ॥
तन बिन पारस नयन बिन दरशे ।
पाये ध्यान वो शेख विशेखे ॥
यह विधि सबहि अलौकिक करणी ।
महिमा जाय कौन विध वरणी ॥3) परमहंस दीक्षा ( सार शब्द की दीक्षा )
जब साधक हंस दीक्षा तथा समाधि दीक्षा का अनुसरण करते हुए ध्यान अभ्यास करता रहता है तो वह गुरु कृपा को पा लेता है और गुरु कृपा से वह अंतरीय मंडलों में गमन करने लगता है तो संत सद्गुरु श्री शिवानंद जी महाराज साधक के आग्रह पर उसको परमहंस अर्थात सार शब्द की दीक्षा प्रदान करते हैं । यह एक बहुत ही गूढ विद्या है । कबीर साहिब ने जब धर्मदास को सारशब्द की दीक्षा दी थी तो उनको गंगा के किनारे ले जाकर एक दस फुट का गड्ढा खुदवाया और उसमें प्रवेश कर उसको ऊपर से ढककर दीक्षा देने से पहले बोले कि “धर्मदास तुझे लाख दुहाई, सार शब्द का भेद कहीं बाहर ना जाई” तब धर्मदास ने विनम्रता से कबीर जी से प्रश्न किया कि “फिर हंसा निज घर कैसे जाई” तक कबीर साहिब ने फरमाया कि “कोई अपना हो तो दयै बताई” अर्थात यदि कोई विश्वासपात्र योग्य साधक मिले तो उसको यह ज्ञान बता देना । सार शब्द की प्राप्ति बिना जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो पाना असंभव है । जब सार शब्द प्रकट होता है तो यह साधक की आत्मा को अपने साथ काल की सीमा से परे अमरलोक अर्थात सतलोक को ले जाता है । इसके बारे में कबीर साहिब ने लिखा है कि –
सार शब्द जब आवे हाथा, तब तो काल नवावे माथा ॥
जाप मारे आजपा मारे अनहद भी मर जाये ।
सूरत समानी शब्द में ता को काल ना खाई ॥
सार शब्द ब्रह्मरंध्र के माध्यम से प्रकट होता है । शरीर के बाहरमुखी नौ द्वारों तथा अंतरीय आज्ञा चक्र के अतिरिक्त यह एक ग्यारवे द्वार के माध्यम से प्रकट होकर सार शब्द आत्मा तो सदा सदा के लिए अमरलोक में ले जाकर परमपिता परमेश्वर में विलीन कर देता है अर्थात काल निरंजन के चंगुल से स्थायी मुक्ति दिलाकर कालातीत कर देता है तथा आत्मा सदा के लिए जन्म मरण से मुक्त हो जाती है । जहां आत्मा अखंड आनन्द का अनुभव प्राप्त करती है । सार नाम के बारे में कबीर जी ने कहा है कि –
जो जन होय जौहरी, सो धन ले बिलगाय ।
सोहंग सोहंग जप मुआ, वृथा जन्म गवाया ।
सार शब्द मुक्ति का दाता, जाका भेद नहीं पाया ।
सोहंग सोहंग जपे बड़े ज्ञानी, नि:अक्षर की खबर न जानी ।
धर्मदास मैं तोहि सुझावा, सार शब्द का भेद बतावा ।।
सार शब्द का पावै भेदा, कहै कबीर सो हंस अछेदा ॥
सार शब्द नि:अक्षर आही, गहै नाम तेही संशय नाहीं ॥
सार षड जो प्राणी पावै, सत्यलोक महिं जाए समावै ॥
काया नाम सबहि गुण गावै, विदेह नाम कोई बिरला पावै ।।
विदेह नाम पावेगा सोई, जिसका सद्गुरु साँचा होई ॥
शब्द शब्द सब कोई कहे, वह तो शब्द विदेह ।
जिव्हा पर आवे नहीं, निरख परख के लेह ॥
बावन अक्षर में संसारा, नि:अक्षर वो लोक पसारा ।
सार नाम सद्गुरु से पवे, नाम डोर गहि लोक सिधावे ।।
सार नाम विदेह स्वरूपा, नि:अक्षर वह रूप अनुपा ।।
तत्व प्रकृति भाव सब देहा, सार शब्द नि: तत्व विदेहा ॥
सबके ऊपर नाम नि: अक्षर, तहै लै मन को राखै ।
तब मन की गति जानि परै, ये सत्य कबीर भाखै ॥
जब लग ध्यान विदेह न आवे, तब लग जीव भाव भटका खावे ।।
ध्यान विदेह औ नाम विदेहा, दोई लाख पावै मिटै संदेहा ॥
छिन एक ध्यान विदेह समाई, ताकि महिमा वरणी न जाई ॥
काया नाम सबै गोहरावे, नाम विदेह कोई बिरला पावे ॥
जो युग चार रहे कोई कासी, सार शब्द बिन यमपुर वासी ॥
अड़सठ तीरथ भूपरिक्रमा, सार शब्द बिन मिटे न भरमा ॥
केवल नाम नि:अक्षर आई, नि:अक्षर में रहै समाई ॥
नि:अक्षर ते करै निवेरा, कहे कबीर सोई जन मेरा ॥
अमर मूल मैं बाराँ सुनाई, जिहिते हंसा लोक सिधाई ॥
शब्द भेद जाने जो कोई, सार शब्द में रहे समाई ।।
चौथे लोक का तब सुख पावै, जब सद्गुरु सार नाम बतावै ।
मन बच कर्म जो नामहि लागै, जनम मरण छूटै भ्रम भागै ॥
मंत्र यंत्र भ्रम जाल है, अक्ल उक्त से थाप ।
नाम नि:अक्षर शब्द है, सुरति निरति से जाप ॥
शब्दे शब्दे सब कहै, शब्द लखे नहि कोई ।
सार शब्द जेहि लखि परै, छत्र धनी है सोय ॥
क्षर अक्षर निरवार के, नि:अक्षर गह सार ।
नि:अक्षर जब पावई, तब ही भाव के पार ॥
अक्षर भेद न जानही, क्षर में सब नर बंद ।
नि:अक्षर जब पावही, तबै मिटे जीव फंद ॥
सिद्ध साधु सब पंचमुए, क्षर के परे झमेल ।
नि:अक्षर जाने बिना, भए काल के चेल ॥
क्षर अक्षर नि:अक्षर बुझे सूझ गुरु परचवे ।
क्षर परहर अक्षर लौलावे, तब नि:अक्षर पावे ॥
बावन अक्षर ध्यावही, ते भव होए न पार ।
नि:अक्षर है का जप करावे, सोई गुरु है सार ॥
सप्त कोटि मंत्र हैं, चित भरमावन काज ।
नि:अक्षर सार मंत्र है, सकाल मंत्र को राज ॥
महा चेतन नि:अक्षर, खंड ब्रहमाण्ड के पार ।
धर्मदास तुम सुमिर के, उतरो भाव जल पार ॥
सत्यनाम की की शोभा, कहानो करो बखान ।
नि:अक्षर जो जानि है, सोई संत सुजान ॥
पिंड ब्रहमाण्ड के पार है, सत्यपुरुष निजधाम ।
सार शब्द जो कोई गहै, लहै तहां विश्राम ॥
कहन सुनन देखन, सब अक्षर में जान ।
गुप्त नि:अक्षर देखो, अंतर दृष्टि समान ॥
संत कोटि बैठे जहां। ज्ञानी लक्ष अनेक ।
सार शब्द में जो रती, सो अनंत में एक ॥स्वांसों का रहस्य ?
आईये आज स्वांस के रहस्यों के बारे में बात करते हैं । वैसे स्वांस का रहस्य जानना मामूली बात नहीं है । क्या आप जानते हैं कि 24 घन्टे में हमें कितनी बार स्वांस आती हैं । नहीं ना जानते ? 24 घन्टे में हमें 21600 बार स्वांस आती है । अगर हम सामान्य अवस्था में हैं । यानी बीमार नहीं हैं ।
या भागने आदि की वजह से हाँफ़ नहीं रहे । या किसी बीमारी के चलते हमारी स्वांस काफ़ी मंदगति से नहीं चल रही । तो सामान्य अवस्था में चार सेकेंड में एक स्वांस का आना जाना होता है । यानी दो सेकेंड में स्वांस लेना और दो सेकेंड में छोङना । इस तरह एक मिनट में 15 बार स्वांस का आना जाना होता है । इस तरह एक घन्टे में 900 बार । और 24 घन्टे में 21600 बार स्वांस का आना जाना होता है । जो आपने अक्सर महात्माओं के नाम के आगे 108 या 10008 लिखा देखा होगा । उसका भी सम्बन्ध स्वांस और भजन क्रिया से है । अब जैसा कि मैं हमेशा कहता हूँ कि शब्द पर ध्यान देने से ही अनेक रहस्य खुल जाते हैं । स्वांस को लें । यदि इसमें से बिंदी ( . ) हटा दी जाय और इस तरह लिखा
जाय । स्व । आस यानी स्वास । तो इसका सीधा सा अर्थ हो गया । स्व ( अपनी ) आस ( इच्छा ) यानी ये दुर्लभ शरीर आपको अपनी प्रबल इच्छा के चलते प्राप्त हुआ है । अब बिंदी का चक्कर रह गया । ये बिंदी बङी रहस्यमय चीज है । मैं अपने अन्य लेखों में भी बिंदी और र की चर्चा कर चुका हूँ । पूरा खेल तमाशा जो आप देख रहें हैं । इसी बिंदी और र का ही है । आप देखें । कि हिंदी भाषा जो संस्कृत से उत्पन्न हुयी है । र और बिंदी के बिना इसकी क्या हालत हो जाती है । र और आधे न का घोतक ये बिंदी इसकी चारों तरफ़ गति है । इसके अलावा किसी भी अक्षर को ये महत्ता प्राप्त नहीं हैं । इस बिंदी का पूरा और असली रहस्य ॐ में छिपा हुआ है । ॐ के पाँच अंग हैं ।ऊ के तीन ।अ । उ । म । अर्ध चन्द्र । चौथा । और बिंदी । पाँचवा । इसी ॐ से मनुष्य शरीर की रचना हुयी है ।
ॐ ते काया बनी । सोह्म ते बना मन ।
तो फ़िलहाल इसे छोङो । मैं स्वांस की बात कर रहा था । अगर आप की स्वांस से दोस्ती हो जाय । अगर आप स्वांस का संगीत सुनना सीख जायें । तो अनगिनत रहस्य आपके सामने प्रकट हो जायेंगे । दूसरे यह एक तरह का दिव्य योग भी होगा । जो आपके शरीर और मन को दिव्यता से भर देगा । यदि आपने किसी साधु संत के मार्गदर्शन में इस रहस्य को जाना । तो फ़िर कहने ही क्या । देखिये संत कबीर साहब ने यूँ ही नहीं कहा ।
स्वांस स्वांस पर हरि जपो । विरथा स्वांस न खोय ।
ना जाने । इस स्वांस का । आवन होय न होय ।
कहे हूँ । कहे जात हूँ । कहूँ बजाकर ढोल ।
स्वांसा खाली जात है । तीन लोक का मोल ।
आखिर इस स्वांस में क्या रहस्य है । जो तीन लोक का मोल बताया गया है ।
वैसे भी कोई कितना ही धनी हो । चक्रवर्ती राजा हो । एक बार मरने के बाद वो अपार सम्पदा का मूल्य देकर भी एक स्वांस नहीं खरीद सकता । सहज योग या सुरती शब्द योग में स्वांस का बेहद महत्व है । पर इस योग का ग्यान रखने वाले क्योंकि दुर्लभ होते हैं । और ये योग हरेक के भाग्य में नहीं होता । इसलिये इस लेख में अभी वो चर्चा नहीं करूँगा । लेकिन " सुर साधना " सामान्य आदमी भी बङे आराम से सीख सकता है । अब सुर साधना का अर्थ संगीत साधना से मत लगा लेना । " सुर " नाक द्वार से जो पवन बहता है । उसे कहते हैं । इसे " दाँया सुर " और " बाँया सुर " कहा जाता है । इसे ही अन्य अर्थों में सूर्य । चन्द्र । और इङा । पिंगला भी कहते हैं । इस सुर को सम करना सिखाया जाता है । जो स्वांस बिग्यान के अन्तर्गत ही आता है । इस सुर को भली प्रकार से सम करना सीख जाने पर ह्रदय के तमाम रोग । डायबिटीज और त्वचा आदि तमाम रोग तो दूर होते ही हैं । अंतिम समय तक । यानी वृद्धावस्था तक युवाओं जैसा शरीर और ताकत प्राप्त होती है ।
सहज योग में सुर साधना या इस प्रकार की अन्य साधनाएं " लय योग " के अन्तर्गत स्वतः समाहित हो जाती हैं । वास्तव में इसीलिये सहज योग या सुरती शब्द योग को सभी योगों का राजा कहा गया है । अब स्वांस के सामान्य जीवन में फ़ायदे सुन लीजिये । अगर आप बैचेनी महसूस कर रहे हैं और अजीव सा लग रहा है । आठ दस गहरे गहरे स्वांस लें । फ़ौरन राहत मिलेगी । अगर आप लम्बे समय से किसी असाध्य बीमारी से पीङित हैं । और बिस्तर पर पङे रहना । आपकी मजबूरी है । तो आप स्वांस से दोस्ती कर लें । फ़िर देंखे । ये आपको कितना लाभ पहुँचाती है और अनजाने आनन्द से भी भर देती है । लेकिन एक बात समझ लें । आप अधिक कमजोरी या बेहद घबराहट जैसे किसी विशेष रोगों से पीङित हैं तो स्वांस पर प्रयोग करना आपके लिये फ़ायदे के बजाय नुकसान का सौदा ही होगा । उपरोक्त बातें सामान्य स्थिति और सामान्य बीमारी के लिये ही हैं । विशेष स्थिति में किसी जानकार के मार्गदर्शन में ही बढना उचित होता है । तो आप जिस तनहाई से घबराते हैं । आपकी जो रातें प्रियतम या प्रियतमा के बिना सूनी हैं । उनमें आप स्वांस से नाता जोङकर देखिये । फ़िर देखिये कैसा आनन्द आता है । किसी बिलकुल अकेले स्थान पर चले जाईये और शांत होकर स्वांस का संगीत सुनिये । निश्चय ही ऐसा आनन्दमय अनुभव आपको संसार की किसी भी वस्तु से नहीं होगा ?
" जाकी रही भावना जैसी । हरि मूरत देखी तिन तैसी । "
" सुखी मीन जहाँ नीर अगाधा । जिम हरि शरण न एक हू बाधा । "कबीर कहते हैं : "सब सांसों की सांस में"
श्वास शरीर का हिस्सा है। परमात्मा को अगर खोजना है तो तुम्हें वहां खोजना होगा, जहां श्वांस भी निस्स्पंद हो जाती है ; विचार भी बंद हो जाते हैं, श्वास भी निस्स्पंद हो जाती है। सब गति शून्य हो जाती है, सब क्रिया लीन हो जाती है ; सिर्फ होना मात्र बचता है ; सिर्फ तुम होते हो शुद्ध—एक शांत झील की भांति, जिस पर एक भी लहर नहीं ; एक शुद्ध दर्पण की भांति, जिस पर एक भी प्रतिबिंब नहीं ; एक गहन सन्नाटा, जिसमें सन्नाटे के भी आवाज नहीं—वहां सब सांसों की सांस में छिपा है।जिस दिन अभीप्सा होगी, उसी दिन द्वार खुल जाएंगे। जिस दिन तुम पुकारोगे पूरे प्राण से, उसी दिन द्वार खुल जाएंगे।
जीसस ने कहा है, खटखटाओ—और द्वार खुल जाएंगे। पुकारो, आवाज दो, प्रत्युत्तर मिलेगा। लेकिन तुम पुकारते नहीं। न तुम द्वार खटखटाते हो। तुम बातचीत करते हो, तुम पूछते हो, कैसे खटखटाएं? तुम पूछते हो, कैसे पुकारें? तुम्हारी सीखी कोई प्रार्थना की वहां जरूरत नहीं है; तुम ही वहां प्रार्थना बनकर खड़े हो जाओ। तुम्हारा होना ही तुम्हारी प्रार्थना हो। तुम्हारा रोआं—रोआं प्यासा हो। तुम्हारी धड़कन—धड़कन में चाह हो—ऐसी चाहत कि शब्द भी छोटे पड़ जाएं। तुम एक लपट की तरह जिस दिन खड़े हो जाओगे; उसी क्षण:
“खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं, पल भर की तालास में।
कहै कबीर सुनो भाई साधो, सब सांसों की सांस में।।"
सोहम् सोहम् सोहम् सोहम्
धूप जहाँ रउप देव जहाँ पूजा
एक निरंजन ओर नहीं दूजा
देव निरनजन अाप ही अाप
क्षण में मिटे तीनों तीनों ताप
ताप मिटें तब होए उजियाला
सब का सवामि सिरजन हारा
सोहम् सोहम् धयान लगावे
अपना अाप अाप मैं पावे
सऩत शिरोमणि कहे नर लोइ
यह पद चिह्ने विरला कोई।
सोहम् सोहम् सोहम् सोहम्।