कबीर, निंदउ निंदउ मोकउ लोगु निंदउ।।
निंदा जन कउ खरी पिआरी।। निंदा बापु निंदा महतारी।।
निंदा होइ त बैकुंठि जाईऐ।। नामु पदारथु मनहि बसाईऐ।।
रिदै सुध जउ निंदा होइ।। हमरे कपरे निंदकु धोइ।।
निंदा करै सु हमरा मीतु।। निंदक माहि हमारा चीतु।।
निंदकु सो जो निंदा होरै।। हमरा जीवनु निंदकु लोरै।।
निंदा हमरी प्रेम पिआरू।। निंदा हमरा करै उधारू।।
जन कबीर कउ निंदा सारू।। निंदकु डूबा हम उतरे पारि।।
तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय |
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय ||
Kabir, Ik nindak na milo,
Paapi milo hazaar.
Ik nindak ke shees pe,
Laakh paap ka bhaar.
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