Monday 29 April 2024

सत्य लोक है अधर अनूपा, तामें है सत्ताविस दीपा

 कहें कबीर सुनो धर्मदासा। अल्प बुद्धि घट मांह निवासा।।

सत्य लोक है अधर अनूपा। तामें है सत्ताविस (27) दीपा।।
सत्त शब्द का टेका दीना। अगम पोहुमीरचीतिन लीन्हा।।
सागर सात ताहि विस्तारा। हंस चलै तहां करै विस्तारा।।
अग्रवास वह सुवरन कांती। तहां बैठे हंसन की पांती।।
पुहुपद्वीप है मध्य सिहांसन। कल्पदीप हंसन को आसन।।
अविगत भूषण अविगत सिंगारा। अविगत वस्त्रा अविगत अहारा।।
कमल स्वरूप भौमी है भाई। वहाँ की उपमा देउ बताई।।
आभा चन्द्र सूर्य नहिं पावहिं। भूल चूक के शीश नवावहिं।।
कला अनेक सुख सदा होई। वह सुख भेद यहंा लहे न कोई।।
निरतै हंस पुरूष के संगा। नखशिख रूप बन्यो बहु अंगा।।
पुरूष रूप को बरनै भाई। कोटि भानु शशि पार न जाई।।
छत्रा सरूप को वरणै भाई। अविगत रूप सदा अधिकाई।।
सत्ताइस द्वीप में करे अनन्दा। जो पहुँचे सो काटें फन्दा।।
हंस हिरम्भर और सोहंगा। श्वेत अरूण रूप दोउ अंगा।।
विमल जोत को है उजियारा। झलकै कला पुरूष में भरा।।
चारि शब्द का लोक बनावा। पांच सरूप लै हंस समावा।।
सत्य शब्द की भूमि बनाई। क्षमा शब्द आसन निरमाई।।
धिर्ज शब्दसों छत्रा उजियारा। सुमत शब्दसों वस्त्रा पसारा।।
प्रेम शब्दसों हंस निरमाई। आप शब्दते लोक समाई।।
दीपन करै दीप हंस बिहारा। तहां पुरूष निर्मल उजियारा।।
जब विहंसे मुख मोड़ सुहाई। निरत हेरि विहंसे चितलाई।।

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