धर्मदास, रहे नल नील जतन कर हार, तब सतगुरू से करी पुकार। जा सत रेखा लिखी अपार, सिन्धु पर शिला तिराने वाले। धन-धन सतगुरु सत कबीर, भक्त की पीर मिटाने वाले।
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