Wednesday 25 September 2024

Sanskrit AnuSwar

 

डॉ. श्यामसुंदर दास ने अनुस्वार के प्रयोग को व्यापक बनाकर देवनागरी के सरलीकरण के प्रयास किये।

ङ, ञ्, ण् , न्, म् अपने ही वर्ग के व्यंजनों से मिल सकते हैं पर उनके बदले में विकल्प से अनुस्वार आ सकता है जैसे :

गङ्गा=गंगा, चञ्चल=चंचल,

पण्डित=पंडित, दन्त=दंत, कम्प=कंप।

कई शब्दों में इस नियम का भंग होता है जैसे : वाङ्मय, मृण्मय, धन्वन्तरि, सम्राट, उन्हें, तुम्हें।

अनुस्वार के आगे कोई अंतस्थ व्यंजन अथवा ह हो तो उसका उच्चारण दंततालव्य अर्थात् व के समान होता है परंतु श, ष, स के साथ उसका उच्चारण बहुधा न् के समान होता है जैसे : संवाद, संरक्षा, सिंह, अंश, हंस इत्यादि।

अनुस्वार (शिरोबिंदु/बिंदी) तथा अनुनासिकता चिह्‍न (चंद्रबिंदु)

अनुस्वार व्यंजन है और अनुनासिकता स्वर का नासिक्‍य विकार। हिंदी में ये दोनों अर्थभेदक भी हैं। अत हिंदी में अनुस्वार (ं) और अनुनासिकता चिह्‍न (ँ) दोनों ही प्रचलित रहेंगे।

1 अनुस्वार

1.1 संस्कृत शब्दों का अनुस्वार अन्यवर्गीय वर्णों से पहले यथावत् रहेगा। जैसे - संयोग, संरक्षण, संलग्न, संवाद, कंस, हिंस्र आदि।

1.2 संयुक्‍त व्यंजन के रूप में जहाँ पंचम वर्ण (पंचमाक्षर) के बाद सवर्गीय शेष चार वर्णों में से कोई वर्ण हो तो एकरूपता और मुद्रण/लेखन की सुविधा के लिए अनुस्वार का ही प्रयोग करना चाहिए। जैसे - पंकज, गंगा, चंचल, कंजूस, कंठ, ठंडा, संत, संध्या, मंदिर, संपादक, संबंध आदि (पंकज, गंगा, चंचल, कंजूस, कण्ठ, ठण्डा, सन्त, मन्दिर, सन्ध्या, सम्पादक, सम्बन्ध वाले रूप नहीं)। बंधनी में रखे हुए रूप संस्कृत के उद्‍धरणों में ही मान्य होंगे। हिंदी में बिंदी (अनुस्वार) का प्रयोग करना ही उचित होगा।

1.3 यदि पंचमाक्षर के बाद किसी अन्य वर्ग का कोई वर्ण आए तो पंचमाक्षर अनुस्वार के रूप में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे :– वाङ्मय, अन्य, चिन्मय, उन्मुख आदि (वांमय, अंय, चिंमय, उंमुख आदि रूप ग्राह्‍य नहीं होंगे)।

1.4 पंचम वर्ण यदि द्‍‌वित्व रूप में (दुबारा) आए तो पंचम वर्ण अनुस्वार में परिवर्तित नहीं होगा। जैसे - अन्न, सम्मेलन, सम्मति आदि (अंन, संमेलन, संमति रूप ग्राह्‍य नहीं होंगे)।

1.5 अंग्रेज़ी, उर्दू से गृहीत शब्दों में आधे वर्ण या अनुस्वार के भ्रम को दूर करने के लिए नासिक्‍य व्यंजन को पूरा लिखना अच्छा रहेगा। जैसे :– लिमका, तनखाह, तिनका, तमगा, कमसिन आदि।

1.6 संस्कृत के कुछ तत्सम शब्दों के अंत में अनुस्वार का प्रयोग म् का सूचक है। जैसे - अहं (अहम्), एवं (एवम्), परं (परम्), शिवं (शिवम्)।

2 अनुनासिकता (चंद्रबिंदु) के प्रयोग के नियम

2.1 हिंदी के शब्दों में उचित ढंग से चंद्रबिंदु का प्रयोग अनिवार्य होगा।

2.2 अनुनासिकता व्यंजन नहीं है, स्वरों का ध्वनिगुण है। अनुनासिक स्वरों के उच्चारण में नाक से भी हवा निकलती है। जैसे :– आँ, ऊँ, एँ, माँ, हूँ, आएँ।

इस2.3 चंद्रबिंदु के बिना प्राय: अर्थ में भ्रम की गुंजाइश रहती है। जैसे :– हंस : हँस, अंगना : अँगना, स्वांग (स्व+अंग): स्वाँग आदि में। अतएव ऐसे भ्रम को दूर करने के लिए चंद्रबिंदु का प्रयोग अवश्य किया जाना चाहिए। किंतु जहाँ (विशेषकर शिरोरेखा के ऊपर जुड़ने वाली मात्रा के साथ) चंद्रबिंदु के प्रयोग से छपाई आदि में बहुत कठिनाई हो और चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु का (अनुस्वार चिहन का) प्रयोग किसी प्रकार का भ्रम उत्पन्न न करे, वहाँ चंद्रबिंदु के स्थान पर बिंदु के प्रयोग की छूट रहेगी। जैसे :– नहीं, में, मैं आदि। कविता आदि के प्रसंग में छंद की दृष्टि से चंद्रबिंदु का यथास्थान अवश्‍य प्रयोग किया जाए। इसी प्रकार छोटे बच्चों की प्रवेशिकाओं में जहाँ चंद्रबिंदु का उच्चारण अभीष्ट हो, वहाँ मोटे अक्षरों में उसका यथास्थान सर्वत्र प्रयोग किया जाए। जैसे :– कहाँ, हँसना, आँगन, सँवारना, में, मैँ, नहीँ आदि।


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