ध्यान विदेह औ नाम विदेहा। दोइ लख पावे मिटे संदेहा।।
छन इक ध्यान विेदेह समाई। ताकी महिमा वरणि न जाई।।
काया नाम सबै गोहरावे। नाम विदेह विरले कोई पावै।।
जो युग चार रहे कोई कासी। सार शब्द बिन यमपुर वासी।।
नीमषार बद्री परधामा। गया द्वारिका का प्राग अस्नाना।।
अड़सठ तीरथ भूपरिकरमा। सार शब्द बिन मिटै न भरमा।।
कहँ लग कहों नाम पर भाऊ। जा सुमिरे जमत्रास नसाऊ।।
सार नाम सतगुरू सो पावे। नाम डोर गहि लोक सिधावे।।
धर्मराय ताको सिर नावे। जो हंसा निःतत्त्व समावे।।
(अनुराग सागर के पृष्ठ 11 से वाणी)
सार शब्द विदेह स्वरूपा। निअच्छर वहि रूप अनूपा।।
तत्त्व प्रकृति भाव सब देहा। सार शब्द नितत्त्व विदेहा।।
कहन सुनन को शब्द चैधारा। सार शब्द सों जीव उबारा।।
पुरूष सु नाम सार परबाना। सुमिरण पुरूष सार सहिदाना।।
बिन रसना के सिमरा जाई। तासों काल रहे मुग्झाई।।
सूच्छम सहज पंथ है पूरा। तापर चढ़ो रहे जन सूरा।।
नहिं वहँ शब्द न सुमरा जापा। पूरन वस्तु काल दिख दापा।।
हंस भार तुम्हरे शिर दीना। तुमको कहों शब्द को चीन्हा।।
पदम अनन्त पंखुरी जाने। अजपा जाप डोर सो ताने।।
सुच्छम द्वार तहां तब परसे। अगम अगोचर सत्पथ परसे।।
अन्तर शुन्य महि होय प्रकाशा। तहंवां आदि पुरूष को बासा।।
ताहिं चीन्ह हंस तहं जाई। आदि सुरत तहं लै पहुंचाई।।
आदि सुरत पुरूष को आही। जीव सोहंगम बोलिये ताही।।
धर्मदास तुम सन्त सुजाना। परखो सार शब्द निरबाना।।
सार शब्द (नाम) जपने की विधि गुरूगम भेद छन्द
अजपा जाप हो सहज धुना, परखि गुरूगम डारिये।।
मन पवन थिरकर शब्द निरखि, कर्म ममन मथ मारिये।।
होत धुनि रसना बिना, कर माल विन निर वारिये।।
शब्द सार विदेह निरखत, अमर लोक सिधारिये।।
सोरठा - शोभा अगम अपार, कोटि भानु शशि रोम इक।।
षोडश रवि छिटकार, एक हंस उजियार तनु।।
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